Wednesday, March 7, 2012

ये कैसी आजादी?
महिला दिवस कब से और यो मनाया जाता है इसका इतिहास मुझे ज्ञात नहीं है किन्तु विगत कुछ वेर्शो में महिला दिवस का शोरगुल पत्र पत्रिकाओ, राजनेतिक गलियारों मोबाइल मेसेज विज्ञापन facebook के माध्यम से महीने पहिले कानो मे चीत्कार करने लगता है .
ज़माना बदल गया महिलाये आज़ाद हो गयी तो आज़ादी का जशन मानना भी लाजमी है . मानना चाहिए भी , परन्तु इन्हें मनाता कौन है ? महिलाये या फिर ऊपर बताये गए लोग ? महिलाये तो अपने लिए तय किये गए इस दिवस की बधाई मात्र स्वीकार करके रोजमर्रा के काम में जुट जाती हैं , घरेलु महिलाओ को तो शायद याद भी नहीं दिलाया जाता है .
इस आज़ादी के बदले में महिलाओ को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड रही है ये कोई महिला ही बता सकती है . महिला जो अन्तेर्मन से आज़ाद होना चाहती है लेकिन आज़ादी के नाम पर अपने परिवार की ज़रुरतो का विकल्प भर बन कर रह गयी है. क्या कुछ नहीं गुज़रता है उस महिला के भीतर जब स्वतंत्र विचारो और जिम्मदारियो के बीच युद्ध छिड जाता है.
समाज ने महिलाओ को सपने देखने की आज़ादी दी लेकिन उन सपनो को पूरा करने की ज़िम्मेदारी उसकी अपनी है वो भी पारिवारिक ज़िम्मेदारी को निभाते हुए , उसमे कही कोई रियायत की गुजाइश नहीं है.
ज़रा सोच कर देखिये कैसा लगता होगा जब शारीरिक और भावनात्मक तौर पर लगातार दोहन करने के पश्चायत उसे वो संबल नहीं मिल पाता है जिसकी वो हक़दार है . क्या कुछ नहीं घुमड़ता है मन मे ? कलेजा बाहर आने लगता है लेकिन फिर सब कुछ भूल कर परिवार के साथ खड़ी हो जाती है.
लक्ष्यों का बोझ, रिश्तो की ज़िम्मेदादारी, और आदर्श बने रहने की इस कोशिश ने तथाकथित इस आज़ाद नारी को थकान से भर दिया है.अपने मन को मार कर हर समय समर्पण के लिए तैयार नारी भावनात्मक रूप से हर पल टूट रही है लेकिन उस दर्द को सुनाने समझने वाला कोई नहीं है.
हाँ , इतना परिवर्तन आया है कि महिलाये आर्थिक रूप से अवश्य सक्षम हो गयी है जिससे वे थोड़ी बहुत अपने लिए सुविधाये जुटा सके लेकिन भावनात्मक गुलामी ज्यो की त्यों है. आज भी परिवार की प्रतिष्ठा की बात आते ही सबसे पहिले महिला को कटघडे मे खड़ा कर दिया जाता है और बिना उसकी बात सुने सजा भी सुना दी जाती है. क्या आज भी परिवार मे और समाज मे कई दुशाशन द्रुपदी की भावनाओ का चीरहरण नहीं कर रहे है, किन्तु कृष्ण को द्रोपदी के मन केया भीतर झाकने का प्रयास भी नहीं कर रहे है. महिलाओ के पास अपनी स्वयं की आवाज़ सुनने के आलावा कोई चारा नहीं है
ये कोई स्त्री और पुरुष की लड़ाई नहीं है , सवाल तो इंसानियत का है फिर चाहे पुरुष हो या स्त्री. भावनाओ को समझने का है , महिला दिवस पर सब बातो का सार यही है कि महिलाये भावनात्मक गुलामी को तोड़ कर आज़ाद हो और पुरुष अपने इस ईमानदार साथी का ख्याल रखे.

जो कुछ महसूस किया वाही बयां किया
अनीता ओर्डिया